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Question Numbers: 129-135
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के सबसे उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनिए :
पूरे विश्व के लाखों लोग पिछले कई वर्षों से इसी प्रयास में संलग्न है कि सीखना सदा जारी रहे और सीखने के इस इल्म के साथ सारा समाज सजग और सबल समाज के रूप में विकसित हो सके। सीखने की निरंतरता और सीखने की सहजता के रिश्ते को परिभाषित करना इस प्रयास की पहली शर्त थी, मगर हम ऐसा नहीं कर सके। पहली आवश्यकता तो यही थी कि सीखने के हर प्रयास को प्रतिष्ठित किया जाता, उसे मान दिया जाता, सम्मान दिया जाता और फिर जो भी सीखने की ओर प्रवृत होता उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया जाता। सीखने के सारे रास्ते खोल दिए जाते। मगर ऐसा नहीं हुआ। हमने सीखने के इल्म को न तो प्रतिष्ठित किया और न ही हमने सीखने को स्वधर्म माना। इसके विपरीत हमने सिखाने के बड़े इंतजाम किए और इन इंतजामों में सिखाने के साधन प्रबल हो गए और सीखने वाला गौण हो गया। सीखने वाला न केवल गौण हुआ बल्कि साधनों के अंबार में दब गया, बहुत पीछे छूट गया। यह क्या हुआ इसका किसी को पता भी नहीं चला।
वास्तविकता कुछ और भी है। भारतीय समाज की ओर जब आस्थावान दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि हर आदमी अपनी आवश्यकता के अनुरूप कुछ सीख लेने और कर लेने के प्रयास में निरंतर जुटा हुआ है। यह उसके अस्तित्व का सवाल भी है और रोजी-रोटी का सवाल भी। जितने और जैसे कौशल का विकास हमारे समाज में सहज रूप से होता रहा है, वैसा कौशल निर्माण सम्भवतया औपचारिक शिक्षा संस्थाओं के बूते की बात भी नहीं थी।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के सबसे उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प चुनिए :
पूरे विश्व के लाखों लोग पिछले कई वर्षों से इसी प्रयास में संलग्न है कि सीखना सदा जारी रहे और सीखने के इस इल्म के साथ सारा समाज सजग और सबल समाज के रूप में विकसित हो सके। सीखने की निरंतरता और सीखने की सहजता के रिश्ते को परिभाषित करना इस प्रयास की पहली शर्त थी, मगर हम ऐसा नहीं कर सके। पहली आवश्यकता तो यही थी कि सीखने के हर प्रयास को प्रतिष्ठित किया जाता, उसे मान दिया जाता, सम्मान दिया जाता और फिर जो भी सीखने की ओर प्रवृत होता उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया जाता। सीखने के सारे रास्ते खोल दिए जाते। मगर ऐसा नहीं हुआ। हमने सीखने के इल्म को न तो प्रतिष्ठित किया और न ही हमने सीखने को स्वधर्म माना। इसके विपरीत हमने सिखाने के बड़े इंतजाम किए और इन इंतजामों में सिखाने के साधन प्रबल हो गए और सीखने वाला गौण हो गया। सीखने वाला न केवल गौण हुआ बल्कि साधनों के अंबार में दब गया, बहुत पीछे छूट गया। यह क्या हुआ इसका किसी को पता भी नहीं चला।
वास्तविकता कुछ और भी है। भारतीय समाज की ओर जब आस्थावान दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि हर आदमी अपनी आवश्यकता के अनुरूप कुछ सीख लेने और कर लेने के प्रयास में निरंतर जुटा हुआ है। यह उसके अस्तित्व का सवाल भी है और रोजी-रोटी का सवाल भी। जितने और जैसे कौशल का विकास हमारे समाज में सहज रूप से होता रहा है, वैसा कौशल निर्माण सम्भवतया औपचारिक शिक्षा संस्थाओं के बूते की बात भी नहीं थी।
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