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Question Numbers: 121-128
दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा पूछे गए प्रश्नों के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प का चयन कीजिए।
आज हम आज़ादी की रजत जयंती मना रहे हैं। पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलत: हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं? या फिर हम इस नकली स्वतंत्रता का नकली दिखावा करते रहेंगे?
मैं आपका ध्यान अपनी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूँगा, जहाँ से मैं आता हूँ। मैं जानता हूँ कि उनमें से ज़्यादा फिल्में ऐसी हैं जिनका ज़िक्र सुनकर आप हँस पड़ेंगे। एक पढ़े-लिखे आदमी के लिए हमारी फिल्में तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। उनकी कहानियाँ बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं। और सबसे बड़ी खराबी है कि वे पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होती हैं। मेरे लिए उनका मज़ाक उड़ाना आसान नहीं है। मैं उनसे अपनी रोज़ी कमाता हूँ। जब मैं आपकी तरह विद्यार्थी था, तब हमारे अंग्रेज़ और हिन्दुस्तानी प्रोफ़ेसर बड़ी कोशिशों से हमारे अंदर यह एहसास पैदा करना चाहते थे कि कला का सृजन करना सिर्फ़ गोरी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है। अच्छी फिल्मे, अच्छे नाटक, अच्छी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है। अच्छी फिल्मे, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव है। पर आज बहुत फ़र्क आ गया है। आज़ादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है।
दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा पूछे गए प्रश्नों के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प का चयन कीजिए।
आज हम आज़ादी की रजत जयंती मना रहे हैं। पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलत: हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं? या फिर हम इस नकली स्वतंत्रता का नकली दिखावा करते रहेंगे?
मैं आपका ध्यान अपनी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूँगा, जहाँ से मैं आता हूँ। मैं जानता हूँ कि उनमें से ज़्यादा फिल्में ऐसी हैं जिनका ज़िक्र सुनकर आप हँस पड़ेंगे। एक पढ़े-लिखे आदमी के लिए हमारी फिल्में तमाशे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। उनकी कहानियाँ बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं। और सबसे बड़ी खराबी है कि वे पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होती हैं। मेरे लिए उनका मज़ाक उड़ाना आसान नहीं है। मैं उनसे अपनी रोज़ी कमाता हूँ। जब मैं आपकी तरह विद्यार्थी था, तब हमारे अंग्रेज़ और हिन्दुस्तानी प्रोफ़ेसर बड़ी कोशिशों से हमारे अंदर यह एहसास पैदा करना चाहते थे कि कला का सृजन करना सिर्फ़ गोरी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है। अच्छी फिल्मे, अच्छे नाटक, अच्छी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है। अच्छी फिल्मे, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव है। पर आज बहुत फ़र्क आ गया है। आज़ादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है।
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