UPSSSC PET 28 Oct 2023 Shift 1 Paper
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Question Numbers: 71-75
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
समाज की विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है। जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक्ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है ? सामान्यतः उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी - न - किसी रूप में उपभोक्ता होते हैं और शोषण का शिकार होते हैं।
हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल अशक्त लोगों की भीड़ है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों की समाजोपयोगी ऊर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है। सरकार कितनी भी योजनाएँ बना कर लागू करे, कोई बड़ा परिवर्तन संभव नहीं है।
उपभोक्ता शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस, ऊँचे ओहदों पर बैठे सरकारी कर्मचारी, वकील आदि सभी आते हैं। इन सबने शोषण के क्षेत्र में जो कीर्तिमान बनाए हैं वे वास्तव में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज कराने लायक हैं। कानून के हाथ कितने भी लम्बे हों, इन सभी तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि रक्षक जब भक्षक बन जाए तो कौन बचाए ? भ्रष्टाचार सभी की जड़ों में पहुँचा हुआ है - ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर। क्या कभी इन लोगों के अच्छे दिन आएँगे ? दूसरी ओर किसी तरह अपनी इज्जत आबरू बचाता मध्यम वर्ग है जो न तो किसी पार्टी के वोट बैंक में है और न ज्यादा पढ़ा-लिखा संपन्न। न सरकार उसकी परेशानियों को समझती है और न कोई अन्य राजनैतिक पार्टी। जिनको सरकारी पेंशन नहीं मिलती, ऐसे बड़े - बूढ़े लाचार लोगों की स्थिति और भी ख़राब है। न तो उनकी संस्कार - विहीन संतान उनका ध्यान रखने को तैयार है और न सरकार उनके लिए कुछ सोच पा रही है। क्या इस विषमता को हटाने की दिशा में कोई कदम उठाया जा रहा है? क्या पढ़े - लिखे नौजवानों को उपयुक्त रोज़गार दिए जाने की दिशा में कुछ हो रहा है? क्या होगा इस देश का, भगवान ही जानता है।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
समाज की विषमता शोषण की जननी है। समाज में जितनी विषमता होगी, सामान्यतया शोषण उतना ही अधिक होगा। चूँकि हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व सांस्कृतिक असमानताएँ अधिक हैं जिसकी वजह से एक व्यक्ति एक स्थान पर शोषक तथा वही दूसरे स्थान पर शोषित होता है। जब बात उपभोक्ता संरक्षण की हो तब पहला प्रश्न यह उठता है कि उपभोक्ता किसे कहते हैं? या उपभोक्ता की परिभाषा क्या है ? सामान्यतः उस व्यक्ति या व्यक्ति समूह को उपभोक्ता कहा जाता है जो सीधे तौर पर किन्हीं भी वस्तुओं अथवा सेवाओं का उपयोग करते हैं। इस प्रकार सभी व्यक्ति किसी - न - किसी रूप में उपभोक्ता होते हैं और शोषण का शिकार होते हैं।
हमारे देश में ऐसे अशिक्षित, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से दुर्बल अशक्त लोगों की भीड़ है जो शहर की मलिन बस्तियों में, फुटपाथ पर, सड़क तथा रेलवे लाइन के किनारे, गंदे नालों के किनारे झोंपड़ी डालकर अथवा किसी भी अन्य तरह से अपना जीवन यापन कर रहे हैं। वे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों की समाजोपयोगी ऊर्ध्वमुखी योजनाओं से वंचित हैं, जिन्हें आधुनिक सफ़ेदपोशों, व्यापारियों, नौकरशाहों एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ने मिलकर बाँट लिया है। सही मायने में शोषण इन्हीं की देन है। सरकार कितनी भी योजनाएँ बना कर लागू करे, कोई बड़ा परिवर्तन संभव नहीं है।
उपभोक्ता शोषण का तात्पर्य केवल उत्पादकता व व्यापारियों द्वारा किए गए शोषण से ही लिया जाता है जबकि इसके क्षेत्र में वस्तुएँ एवं सेवाएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिनके अंतर्गत डॉक्टर, शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, पुलिस, ऊँचे ओहदों पर बैठे सरकारी कर्मचारी, वकील आदि सभी आते हैं। इन सबने शोषण के क्षेत्र में जो कीर्तिमान बनाए हैं वे वास्तव में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज कराने लायक हैं। कानून के हाथ कितने भी लम्बे हों, इन सभी तक नहीं पहुँच सकते क्योंकि रक्षक जब भक्षक बन जाए तो कौन बचाए ? भ्रष्टाचार सभी की जड़ों में पहुँचा हुआ है - ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर। क्या कभी इन लोगों के अच्छे दिन आएँगे ? दूसरी ओर किसी तरह अपनी इज्जत आबरू बचाता मध्यम वर्ग है जो न तो किसी पार्टी के वोट बैंक में है और न ज्यादा पढ़ा-लिखा संपन्न। न सरकार उसकी परेशानियों को समझती है और न कोई अन्य राजनैतिक पार्टी। जिनको सरकारी पेंशन नहीं मिलती, ऐसे बड़े - बूढ़े लाचार लोगों की स्थिति और भी ख़राब है। न तो उनकी संस्कार - विहीन संतान उनका ध्यान रखने को तैयार है और न सरकार उनके लिए कुछ सोच पा रही है। क्या इस विषमता को हटाने की दिशा में कोई कदम उठाया जा रहा है? क्या पढ़े - लिखे नौजवानों को उपयुक्त रोज़गार दिए जाने की दिशा में कुछ हो रहा है? क्या होगा इस देश का, भगवान ही जानता है।
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